कहाँ ले जा रहे हो जगन्नाथ जी को ?
कहाँ ले जा रहे हो जगन्नाथ जी को
दर्शन अब हम करेंगे किसे?
खुन्टिआ हांक चुके
पहन्डि निकल पड़ी है
न।व पर अब सवार होंगे प्रभुजी
हर घर की औरतें बिलख रही है
शोककुल पन्डे जमीन पर लेटे हुए हैं
ओडिशा के कपाल फूटे हैं ।
बडे देउल छोड कर बैलगाड़ी की सवारी से
श्रीमुख धूल से सना हुआ होगा
पुछ्ता है सालबेग
निर्माल्य अब कैसे मिल पाएगा
धिक्कार हो हमारे जीवन को ।
===
खुन्टिआ - श्रीमंदिर के सेवायत
पहन्डि - जगन्नाथ एवं अन्य विग्रहों के पारंपरिक चल समारोह
निर्माल्य - जगन्नाथ जी के सूखे अन्न प्रसाद
सालबेग की ओड़िया कविता - प्रसन्न दाश द्वारा अनुवादित
सालबेग (17वीं शताब्दी) ओड़िया साहित्य के उल्लेखनीय संत कवियों में से एक हैं। उन्होंने श्री जगन्नाथ, श्रीकृष्ण, श्रीराम, शिव और शक्ति तथा निराकार ब्रह्म के लिए कई भावपूर्ण भजनों की रचना की।
उनके पिता मुस्लिम और मां ब्राह्मण थीं। मैं एक यवन हूं और कोई भी हिंदू मेरे हाथ से पानी नहीं पिएगा, वह पीड़ा से गाते है।
उनकी जाति के कारण, उन्हें अपने प्रिय भगवान के दर्शन के लिए श्रीमंदिर में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी, फिर भी उन्होंने अपने बाद के वर्ष पुरी में बिताए, और बड़दांड से दैनिक पतितपावन दर्शन किया। उन्होंने जगन्नाथ की महिमा गाई, और इस गीत में अलगाव की पीड़ा भी गाई जब भगवान को मुस्लिम लुटेरों से बचाने के लिए एक गुप्त स्थान पर ले जाना पड़ा।
उनकी भावपूर्ण कविताएं जगन्नाथ के भक्तों के बीच बहुत लोकप्रिय हैं।
***